18.11.07

बारिश की खुश्बू की ताज़गी

चिट्ठों की भीड़ में अपनी पहचान बना पाना आसान नहीं है, आज का ताज़ा चिट्ठा कल का बासी बन के नौ दो ग्यारह हो जाता है। ऐसे में एक चिट्ठा सौरभ पाण्डे का - बारिश की खुश्बू - भा गया। सोचा कि क्यों भाया - शायद इसलिए कि एक तो उनकी हिंदी पाक-साफ़ है, और दूसरा उनके लेखन में उनका व्यक्तित्व झलकता है, ऐसा नहीं लगता कि किसी को चमत्कृत करने के लिए लिख रहे हैं। वैसे तिरुपति-शैली की धर्मांधता (और वैष्णो देवी शैली की भी) के बारे में मेरे विचार भी काफ़ी तीखे हैं, आप तिरुपति न जा पाए तो परेशान न हों! वहाँ जाना हिमालयन कार रैली का रोमांच तो दे देगा, पर यदि वास्तव में आध्यात्मिक उन्नति चाहिए तो अपने घर के एक कोने में उतना ही समय बिताना संभवतः अधिक लाभ देगा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. मैं तो तिरुपति जा कर भी लौट आया था बिना दर्शन किये। लाइन बहुत लम्बी थी। अन्यथा प्रेफरेंशियल दर्शन पैसे पर सम्भव थे।

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  2. आलोक जी नमस्कार,
    इतनी बढाई के लिए धन्यवाद! एक नौसिखिया हूँ इसलिए आप जैसों के वचन सुनकर प्रोत्साहन मिलता है.

    वैसे मैं तिरुपति न जा पाया मगर पिताजी को पता लगने पर जो डाँट पड़ी तो अगले ही हफ्ते श्री शैलम हो आया ( शिवजी के १२ ज्योतिर्लिंगों मे से एक). बहुत ही खूबसूरत जगह है ,भीड़ भी नहीं थी. (हैदराबाद से ~२३० कि. मी. दूर.)
    आगे भी आते रहिये..
    धन्यवाद,
    सौरभ

    नोट : ये आपके चिठ्ठे पर कुछ चाइनीज़ किस्म के अक्षर क्यों दिखाई पड़ रहे हैं ?

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  3. सौरभ जी,
    शैलम - पहले नहीं सुना है।
    चीनी नहीं जापानी है, क्योंकि ब्लॉगर में हिंदी नहीं चल रही है

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