25.8.07
जीमेल की चिप्पियों और भंडारण का नुकसान
जिस प्रकार टीवी में रिमोट होने की वजह से कसरत कम होती है, उसी प्रकार जीमेल की चिप्पियों और भंडारण के भी मुझे कुछ नुकसान झेलने पड़े हैं। देखिए।
हाँ, नीचे और भी हैं।
इतनी अपठित इसलिए रह गईं क्योंकि मेरी छन्नियाँ इस प्रकार की हैं कि चिप्पी लगाने के साथ साथ, इन संदेशों के लिए इनबॉक्स छोड़ें का विकल्प भी चुना गया था।
नतीजा यह कि चिप्पियों में तो अपठित डाक की संख्या लगातार बढ़ रही थी, लेकिन डाक खोलने पर डाक पेटी में संदेश इक्का दुक्का ही रहते थे। साथ ही, ज़्यादा डाक इकट्ठी करने से जीमेल को कोई दिक्कत नहीं है। याहू डाक की तरह ऊपर लाल खतरे का निशान नहीं आता है। साथ ही, अगर चिप्पियाँ ज़्यादा हों तो डाक खोलने पर सामने सामने अपठित की संख्या नहीं दिखती है, क्योंकि वह नीचे छिप जाती हैं। तो जिस प्रकार दीमक अंदर ही अंदर से लकड़ी को खोखला कर देती है, उसी प्रकार, मेरे अपठित संदेशों की संख्या हज़ार के करीब पहुँच गई। यह सब पिछले छः महीने में हुआ।
इसके मुझे कई खामियाजे भी भुगतने पड़े हैं - चिप्पी तो लगी है, अब एक-एक चिप्पी से शुरू करें तो आप शायद दूसरी चिप्पी लगी ताज़ी - और शायद ज़्यादा ज़रूरी डाक - को देर से पढ़ें। इसका आज एक निदान सोचा।
पहले तो सभी छन्नों से "इनबॉक्स छोड़ें" का विकल्प हटा दिया। इससे चिप्पी तो लगी रहेगी, लेकिन समयक्रम के अनुसार नए संदेश डाकपेटी में भी दिखेंगे।
दूसरा, हर चिप्पी के अपठित संदेशों को वापस डाकपेटी में ले आया।
नतीजा यह हुआ कि चिप्पियों के तहत अपठित तो हैं ही, साथ ही डाक पेटी में भी संख्या आ गई है, और सारी अपठित डाक नज़रों के सामने समयक्रम के अनुसार दिख रही है।
तो थोड़ी सुविधा तो हो ही गई है। वैसे मैं ज़रूरत से ज़्यादा लापरवाह हूँ, पर यदि आपको इसी प्रकार की समस्या हो - डाक पढ़ना टरकाने की - तो मेरा सुझाव है कि चिप्पियाँ तो लगाएँ, लेकिन संग्रहीत न करें।
साथ ही कुछ मीन मेख। आप देखेंगे कि तारांकित ठीक से नहीं लिखा आया है। इसी तरह यहाँ ज़बर्दस्ती खिंचाव पैदा किया गया है -
गूगल वालों को चिट्ठी लिखनी पड़ेगी। अब हम होते हैं नौ दो ग्यारह।
23.8.07
21.8.07
प्रेमचंद की ओट में शिकार
देखो, शब्द कहीं से लो, अरबी, फारसी, पंजाबी, गुजराती, अंग्रेजी कहीं का हो, ख्याल रहे कि ख्यालात का तसब्बुर और ज़वान की रवानगी ........ भाषा की प्रवहमानता और विचारों का क्रम बना रहे।
- —प्रेमचन्द
[उपेन्द्रनाथ अश्क को लिखे पत्र से साभार]
तसव्वुर, रवानगी - शूँ छे?
विचार कुंज से साभार।
4.8.07
हिन्दी का डिग - हिन्दीजगत्
कुछ दिनो पहले मैंने डिग पर हिन्दी का एक लेख प्रकाशित करने की कोशिश की। लेकिन हिन्दी का लेख नहीं छाप पाया - शीर्षक में हिन्दी स्वीकार्य नहीं था, या ऐसी ही कोई समस्या। डिग पर लोगबाग अपनी पसन्द की खबरें - यानी जालस्थलों के पन्नों की कड़ियाँ - प्रस्तावित करते हैं, और फिर यदि और लोगों को पसन्द आती हैं, तो वे उनके बगल में मौजूद लघु छवि पर चटका लगा के घोषित करते हैं कि उन्हें पसन्द आईं। इस प्रकार पहले पन्ने पर हमेशा सबसे लोकप्रिय खबरें होती हैं, अगले पर उससे कम, आदि आदि। यह क्रम लगातार बदलता रहता है, नई खबरों के आने और लोगों की राय के अनुसार।
तो बात हो रही थी कि डिग पर हिन्दी के लेख नहीं छाप पा रहा था। फिर परसों मुझे मिला हिन्दी जगत् - यह लगभग हिन्दी का डिग ही है। आप भी आजमा के देखें।
<जोड़ा>
देख रहा हूँ इसे डालने से क्या होता है -
Save This News!
</जोड़ा>
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