29.9.05

कामिल बुल्के

सोच रहा था कि इन से सम्पर्क करूँगा, कि क्या वे जाल पर शब्दकोश बनवाने में मदद कर सकेंगे क्या? लेकिन पता चला कि उनका देहान्त हो चुका है, 1982 में? नहीं, मुझे नहीं लगता। क्योंकि मुझे याद पड़ता है कि उनका साक्षात्कार मैंने टीवी पर देखा था, और मेरे घर पर टीवी तो 84 के बाद ही आया है। पर जो भी है, प्रेरणा तो मिलती रहेगी उनसे। कभी न कभी तो नौ दो ग्यारह होना ही था। अक्सर कुछ चीज़ दिमाग़ में कौंध जाती है, और फिर लगता है कि कुछ किया जाए। पता नहीं होता है कि यह प्रेरणा कहाँ से और कब मिलेगी। पर मिल जाती है। पर फ़र्क है शौकिया तौर पर कुछ करने वाला जो कि जुनून सवार होने पर पेलने लगता है और जोश ठण्डा होने पर सुर्खाब के पर की तरह रफ़ूचक्क होने वाले इंसान में और जीवन समर्पित कर के कुछ करने वाले में। आसान नहीं होता निर्णय लेना, जब एक चीज़ पाने के लिए कुछ औरों को छोड़ने का फ़ैसला करना पड़े। यह फ़ैसला कामिल बुल्के ने किया। हमें क्या पता कि उन्होंने क्या तकलीफ़ें झेलीं? नहीं पता। और अब पता चलेगा भी नहीं। उनको हिन्दी या संस्कृत सीखने की प्रेरणा कहाँ से मिली। ज़रूर कुछ तो पसन्द आया होगा इस सब में, पर इसको चार दिन की चाँदनी के बाद भी बरकरार रखना - जीवन भर के लिए - आसान नहीं है। जापानी, तगालोग तो मैंने भी सीखी है लेकिन इतनी तो नहीं कि सब कुछ भूल भाल कर उसी में लग जाऊँ। कभी कभार इंसान को लगता है कि वह इसी काम को करने के लिए बना है, तभी उसे वह कर पाता है वरना नहीं। ख़ास तौर पर तब जब वह भेड़ चाल न चल रहा हो। अचरज होता है न कि कामिल बुल्के ने यह सब क्यों किया? साथ ही कुछ लोग सोचते होंगे कि वह पागल ही था जो उसने इतना सब कुछ किया। विस्मय, करने की छूट है लोगों को।

23.9.05

ये इण्टर्नेट मेरे किस काम का?

मेरे कई मित्र और रिश्तेदार यह सवाल पूछते हैं, इसलिए यह लेख लिखा है। भई पहले तो यह नाम ही बोलना बहुत कठिन है, इसलिए हम इसे जाल ही बुलाएँगे। जाल, यानी जैसे इन्द्रजाल। तो आप पूछ रहे थे कि जाल है किस काम का? इसमें तो शक नहीं कि बिना जाल के हमारी ज़िन्दगी भली भाँति चल रही है, या थी। आखिर 1995 में ही सार्वजनिक रूप से इसमें इतनी अधिक बढ़ोतरी आई। था तो ये काफ़ी पहले से ही। तो पहले ये समझते हैं कि ये है क्या चीज़। या हो सकता है कि आपको मालूम हो कि जाल क्या है, पर मैं आपको जाल को देखने समझने का एक अलग नज़रिया देता हूँ, मेरा नज़रिया। मैं पढ़ा हूँ केन्द्रीय विद्यालयों में। वहाँ पर हर तिमाही में (या चौमाही में? भूल ही गया हूँ!) एक प्रोजेक्ट वर्क करना होता है, हरेक विषय के बारे में। तो मैंने अपने एक और मित्र के साथ एक बार चाँद के बारे में प्रोजेक्ट बनाया। उसके लिए जानकारी लेने गया था डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी, जुड़ पुखड़ी, गुवाहाटी में। उन दिनों पिताजी गुवाहाटी में थे। वहाँ पर इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के ऍम वाली पोथी खोली और उसमें से टीपना शुरू किया। इंसाइक्लोपीडिया आप घर नहीं ले जा सकते हैं, इसलिए रोज स्कूल के बाद जा के टीपता था। और तैयार हो गया प्रोजेक्ट वर्क। इसी तरह एक बार मैंने कैंसर पर परियोजना की, उसके लिए ऍनसीईआरटी दिल्ली के पुस्तकालय में वही काम किया जो गौहाटी में किया। वह तो मेरा साथी विपुल ऍनसीईआरटी कैम्पस में रहता था तो काम बन गया, वरना मैं तो दिल्ली में ऐसे किसी पुस्तकालय को नहीं जानता था जहाँ पर इंसाइक्लोपीडिया मिलती हो। स्कूल में भी नहीं थी। फिर मैं गया काम करने सिलतारा, गुम्मिडिपुण्डी, मोटी खावडी। इन जगहों के नाम शायद ही आपने सुने हों, यदि सुने हों तो आइए बतियाएँगे इनके बारे में। पर वो फिर कभी। यहाँ पर पुस्तकालय तो क्या मैगज़ीनों की दुकान तक नहीं होती थी। हर इतवार को शहर जाता था, एकाध किताब खरीदता था (वह भी महँगी होती थीं इसलिए कम ही), एक फ़िल्म देखता था और खाना खा के वापस आता था। मैं सोचता हूँ, वहाँ के बच्चे अपने प्रोजेक्ट वर्क कैसे करते होंगे? आख़िर केन्द्रीय विद्यालय तो सभी जगह हैं। चलिए, अब मुझे गुम्मिडीपुण्डी से जब लखनऊ जाना होता था तो मद्रास से ट्रेन मिलती थी। उसका टिकट लेने के लिए, पहले एक ट्रेन पकड़ के मद्रास सेंट्रल आता था, वहाँ दूसरी मंजिल पर टिकट काउण्टर था। अभी भी है। पहले एक लाइन में लगता था कि पता करें कौन से दिन की मिल रही है। जब वो पता चल जाता था तो टिकट लेने वाली लाइन में लगता था। पर लाइन इतनी लम्बी होती थी कि कभी कभी नम्बर आते आते रिज़र्वेशन खत्म। वहाँ क्लर्क को बोलो कि देख के बताए कब की मिल रही है तो या तो वो बता देगा, या कहेगा कि इन्क्वाइरी यहाँ नहीं होती। तो हो गया काम तमाम। फिर टिकट लेने के बाद ही छुट्टी माँग सकते हैं न। अग़र छुट्टी की मनाही हो गई या तारीख बदल दी गई तो फिर जा के वही सब करो। ये सब चीज़ें हमारे जीवन में आम हैं। इतनी आम कि अक्सर जब जसपाल भट्टी का उल्टा पुल्टा देखते हैं या पङ्कज कपूर का ऑफ़िस ऑफ़िस देखते हैं तो कई बार तो हँसी ही नहीं आती, समझ नहीं आता कि इसमें चुटकुला क्या है, आख़िर इतनी आदत जो पड़ गई है टेढ़े तरीके से काम करने की। जब मैं इन गाँवों में रहता था तो काम भी बहुत होता था, सुबह आठ से रात के 9-10 बजे तक। घर पर फ़ोन करने का मौका नहीं मिलता था। मिलता भी था थो हमेशा एक नज़र लाल रङ्ग के नम्बरों पर लगी रहती थी, कि कब सौ पार होगा और चोगा रखना होगा। और अग़र घर वाले फ़ोन करना चाहें तो कर ही नहीं सकते, क्योंकि करेंगे तो कहाँ करेंगे? अब आइए वापस जाल पर आते हैं। समझिए सारी दुनिया ने अपने घर या दुकान पर एक फ़ोन लगा रखा है, जिसमें उस घर या दुकान के बारे में जानकारी लगातार दोहराती जाती रहती हो। आप जैसे ही फ़ोन का नम्बर मिलाएँ, आवाज़ बोलने लगे। बस आपको यह पता करना होगा कि क्या चीज़ पता करने के लिए कहाँ फ़ोन लगाना होगा। रेल की जानकारी के लिए ये नम्बर, चाँद की जानकारी के लिए कुछ और, और कैसर के लिए कोई और। कैसा रहेगा? ऍसटीडी बूथ में जाइए और पता कर लीजिए कि कौन सी तारीख का कौन सी क्लास का टिकट मिल रहा है। और अग़र घर पर फ़ोन हो तो और बढ़िया। घर में कोई वयोवृद्ध हो या बीमार हो तो वह भी यह सब तो पता कर सकता है, दूसरों पर आश्रित नहीं रहेगा। अब मान लीजिए कि यही फ़ोन लगातार वही बात रट्टू तोते की तरह नहीं बताता है, बल्कि आपको विकल्प देता है, कि कानपुर की गाड़ियों की जानकारी के लिए 1 दबाएँ, कलकत्ते के लिए 2, आदि। मतलब आपका समय और बचेगा। और उसके भी ऊपर, समझिए कि आपको चुरू जाना है और चुरू की जानकारी नहीं है। तो आप फ़ोन वाले के लिए सन्देश छोड़ सकें कि भइए, चुरू की जानकारी भी देना शुरू करो। तो कैसा रहे? इसी तरह समझिए कि मेरे घरवाले मुझसे जब भी बात करना चाहें, अपने नम्बर पर कुछ रिकॉर्ड कर के छोड़ दें। जब मुझे समय मिले तो मैं वह नम्बर डायल करके उसे सुन लूँ, और जवाब भी रिकॉर्ड कर लूँ। तो कैसा रहे? आप कहेंगे कि आमने सामने बात करने से बढ़िया तो कुछ भी नहीं है। हाँ, सो तो है। पर आप हमेशा तो ऐसा नहीं कर सकते हैं न। ऊपर के उदाहरणों में ही हमने देखा। एक इंसान एक समय में एक ही जगह रह सकता है, इसीलिए उसे एकदेशी कहते हैं। तो इतना निश्चित है कि इस विधि से आप पहले के मुकाबले अधिक लोगों से सम्पर्क में रह सकेंगे, जानकारी जल्दी प्राप्त कर सकेंगे और समय भी बचाएँगे। अब आप यहाँ पर फ़ोन के बजाय कम्प्यूटर का पर्दा रखें। कम्प्यूटर की मदद से आप एक फ़ोन नम्बर मिलाएँगे, और फिर कम्प्यूटर के पर्दे पर बताएँगे कि आप को क्या जानकारी चाहिए। कम्प्यूटर खोज कर बता देगा कि आपको जो चाहिए, वह कहाँ उपलब्ध है, और वह जानकारी - लिखित, छवि ध्वनि या वीडियो के रूप में आपके सामने फ़ोन लाइन के जरिए पेश कर देगा। चाँद और कैंसर के बारे में मैं दिल्ली में घर बैठे भी पता लगा सकता हूँ। ट्रेनों के बारे में जानकारी मुझे घर बैठे मिल सकती है। जो नई गाड़ियाँ या स्पेशल गाड़ियाँ चलती हैं, उनके बारे में भी पता लगा सकता हूँ, उनकी जानकारी तो टाइम टेबल में भी नहीं होती है। और यह सब कुल छः सौ रुपए महीने, एक फ़ोन और लगभग बीस हज़ार की लागत के एक कम्प्यूटर की मदद से। सोचिए, जो लोग जाल का रोज इस्तेमाल करते हैं, उनके पास कितनी जानकारी है। जानकारी न हो तो भी जानकारी सरलता से प्राप्त करने का कितना अच्छा तरीका है। यह आपकी रोज की दुनिया को कैसे बदल सकता है। मद्रास में बैठे आप हिन्दी का अखबार पढ़ सकते हैं। कभी देखा है मद्रास में हिन्दी का अखबार? एयर डेक्कन की एक रुपए वाली टिकट सुबह पाँच बजे अपने घर से बाहर निकले बिना बुक कर सकते हैं। बच्चों के लिए अच्छे स्कूलों और कॉलेजों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है। इतना ही नहीं, इन सबके बारे में दूसरों से राय ले सकते हैं, आप जिन लोगों को जानते तक नहीं उनसे मदद ले सकते हैं और उनकी मदद कर सकते हैं। नई भाषा सीख सकते हैं, अङ्ग्रेज़ी, तमिल, आदि। और भी बहुत कुछ कर सकते हैं। तो आपको पूछना चाहिए, कि जाल हमारे किस किस काम का है? यह नहीं कि जाल हमारे किस काम का है? आप अपने घर पर बनाए सामान को जाल पर सजा के (तस्वीरों की बदौलत) उन्हें बेच सकते हैं। आप पता कर सकते हैं कि आपके बच्चे को जो दवाई पिलाई जा रही है, उसके साइड इफ़ेक्ट क्या हैं। आपकी जायदाद को लेके जो कानूनी पचड़ा है, उसके बारे में कानून क्या कहता है? बिना किसी डॉक्टरी या वकालत की किताब खरीदे। आप जाल पर फ़ोन नम्बर खोज सकते हैं। घर पर मोटी मोटी फ़ोन डायरेक्टरियाँ रखने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी हर साल और जगह घेरती हैं, और उनमें नए नम्बर तो मिलते भी नहीं हैं। आप घरेलू सामानों के दाम पता कर सकते हैं, कौन से ब्राण्ड सस्ते हैं, कौन से मॉडल में क्या सुविधाएँ हैं। अब तक आपको ये सब जानकारी अपने पड़ोसी, दफ़्तर वाले, और रिश्तेदार देते आए थे। अब आप और अधिक स्रोतों से यह पता कर सकते हैं। यदि आप अच्छा लिखते हैं, तो जाल पर अपने लेख भी लिख सकते हैं। पर आप यह सब करेगे कैसे? सब कुछ तो अङ्ग्रेज़ी में है। फ़ोन पर बात करने में तो हिन्दी की कोई मनाही नहीं है। हिन्दी चैनल टीवी पर देखने की भी कोई मनाही नहीं है। उसी तरह जाल पर भी हिन्दी में सब कुछ करने में कोई मनाही नहीं है। बस इसके बारे में लोगों को पता कम है। और अग़र कम पता है तो और पता किया जा सकता है। हाँ, आपके और बहुत सवाल होंगे। पूछिए।

17.9.05

अनुगूँज 14: हिन्दी जाल जगत: आगे क्या?

Akshargram Anugunj पन्द्रह सितम्बर 2005 वाले पखवाड़े के अनुगूँज का विषय है हिन्दी जाल जगत: आगे क्या? इस पर पहले भी चर्चा हो चुकी है, लेकिन उसका उल्लेख करके आपको पूर्वाग्रहग्रस्त न करते हुए केवल एक तथ्य (तथ्य, राय नहीं) आपके सामने पेश करता हूँ। हिन्दी के कुल जालस्थलों की सङ्ख्या इस वक़्त छः सौ से कुछ अधिक है। पर निश्चय ही सात सौ से कम है। इनमें भी काम की चीज़ ढूँढने जाएँ तो रो पिट कर अन्य भाषाओं के स्थलों से काम चलाना पड़ता है। अब इस तथ्य से सम्बन्धित अपनी राय दीजिए। (1) क्या यह स्थिति वाञ्छनीय है? यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं तो क्यों नहीं? (2) इतना तो निश्चित है कि जाल पर हिन्दी बढ़ेगी। पर क्या बढ़ने की रफ़्तार वही रहेगी जो अभी है? या रफ़्तार कम होगी? या रफ़्तार बढ़ेगी? (3) क्या हिन्दी जाल जगत को सर्वाङ्गीण विकास की आवश्यकता है? क्या विकास की दिशा का नियन्त्रण किया जाना चाहिए या इसे अपने आप फलने फूलने या ढलने देना चाहिए? साथ ही, वैयक्तिक रूप से क्या हम इस विकास पर कोई असर डाल सकते हैं? ज़रूरी नहीं कि इन सभी पहलुओं पर आप लिखें, यह भी ज़रूरी नहीं कि आप इनमें से किसी भी पहलू पर लिखें। अनुगूँज की चेंपी लगी होगी तो आपके लेख को शामिल कर लिया जाएगा :) अन्ततः यह अवसर देने के लिए धन्यवाद। अनुगूँज है क्या? अपने लेखों की कड़ियाँ टिप्पणियों में डालने का कष्ट करें। या फिर ट्रॅकबॅक कर दें (आज तक मुझे पता नहीं चला है कि यह करते कैसे हैं)। लेख के साथ अनुगूँज की छवि लगाना न भूलें। इस प्रविष्टि में टिप्पणियाँ निषिद्ध हैं, क्योंकि टिप्पणियों का इलाका मूल प्रविष्टि है।

16.9.05

दहेज

अपने विचार व्यक्त करके मुझे आलोकित करें। नौ दो ग्यारह होते हैं अब। news:alt.language.hindi पर भी।

9.9.05

अपने जालस्थल को लोकप्रिय बनाएँ

कुछ नुस्खे। अपनी राय लिखिए। आपकी सलाह भी शामिल करता हूँ, आपके नाम के साथ। यह दस्तावेज़ ग्नू मुक्त प्रलेखन अनुमतिपत्र के तहत उपलब्ध है, यानी कि आप इसे कहीं और भी प्रकाशित कर सकते हैं, बशर्ते कि यही अनुमतिपत्र उस प्रति पर भी लागू हो।

6.9.05

हिन्दिका

हिन्दिका, व्यवसायिक यूनिकोडित हिन्दी स्थल बनाने की ओर अग्रसर एक प्रयोग है। जो सुविधाएँ अभी जाल पर हिन्दी में उपलब्ध नहीं है, और निःशुल्क रूप से नहीं प्रदान की जा सकती है, अथवा की जा सकती हैं पर उनमें प्रयास बहुत लगेगा, वे यहाँ आपको मिलेंगी। क्या देखना और करना चाहेंगे आप हिन्दिका पर?
  • मुम्बई से रतलाम की रेलवे समय सारिणी, आरक्षण के बारे में पता करना
  • आज पूना से भोपाल हवाई जहाज़ से जाने के लिए सबसे सस्ती टिकट के बारे में पता करना
  • दशहरे पर हिन्दी में ईकार्ड प्रेषण
  • डॉक्टर से स्वास्थ्य सम्बन्धी बातचीत व शङ्का समाधान
  • जालस्थल बनाने के लिए विस्तृत प्रशिक्षण सामग्री
  • कम्प्यूटर पर आम काम करने के बारे में सचित्र निर्देश
  • बङ्गलोर शहर के दर्शनीय स्थल, दाम, खरीदने के लिए चीज़ें
  • नौकरियों की अर्ज़ियाँ भरने की तारीखें
  • निबन्धों का सङ्ग्रह, टोपो मारने के लिए
  • प्रोग्रामिङ्ग भाषाओं के बारे में जानकारी व कुञ्जियाँ
  • और क्या? लिखिए टिप्पणियों में। टिप्पणी - निःशुल्क रूप से नहीं प्रदान की जा सकती है से अभिप्राय यह है कि किसी को पैसा खर्चना होगा, ज़रूरी नहीं कि स्थल के प्रयोक्ता को ही।
  • 2.9.05

    जीमेल, हिन्दी में

    दुनिया में पहली बार, पूर्णतः हिन्दी में कोई डाक सेवा तैयार हुई है, जीमेल - पता नहीं आपके खाते में हिन्दी वाला विकल्प है या नहीं, पर यदि नहीं है तो शीघ्र ही आ जाना चाहिए। हिन्दी में डाक, जीमेल की ईमेल