22.12.07

अताउल्ला खां

अताउल्ला खां, नुसरत फ़तेह अली खाँ और अल्ताफ़ रज़ा, इन तीनों में ज़बर्दस्त होड़ रहती है मेरे दिमाग़ में, यानी जब भी कोई कव्वाली या दर्द भरा किस्म का गीत रेडियो पर आता है तो लगता है कि ज़रूर इन तीनों में से किसी का होगा। पर पता नहीं चल पाता कि वास्तव में किसका है। कोई तोड़ है इसका किसी के पास? पर अताउल्ला खां को ले कर अब ज़्यादा दिक्कत नहीं आएगी, इनसे पूछा जा सकता है। वैसे क्या आप संस्कृत का कोई ऐसा शब्द जानते हैं जिसमें बीच में पूरे स्वर आते हों? मात्रा नहीं, पूरा स्वर।

8.12.07

माइक्रोसॉफ़्ट ऑफ़िस ऑन्लाइन

माइक्रोसॉफ़्ट वाले आपका ऑफ़िस ऑन्लाइन में स्वागत कर रहे हैं, वह भी निःशुल्क, और वह भी हिन्दी में। पता चला कि माइक्रोसॉफ़्ट ऑफ़िस के सात अलग अलग संस्करण हैं, जेब के भार के आधार पर। सहायता और नुस्खे, और थोड़ा बहुत फ़ोकट का माल भी है, पर उतना नहीं जितना ओपन ऑफ़िस में, पर उसके बारे में मुक्त तंत्रांश दिवस पर।

7.12.07

(अरब स्वता) || (अरब्स वता)

मुझे नहीं पता था की अरबियों में जीभ बाहर निकालना भी लड़कियों को छेड़ने के तरीकों में गिना जाता है। आँख मारना, सीटी बजाना, आदि तो ठीक है, पर जीभ निकालने का काम तो बच्चे ही करते हैं अपने यहाँ, छेड़छाड़ की भाषा में तो नहीं गिना जाता है। एक बात और, अरबी फ़ारसी जानने वाले लोग उन शब्दों की देवनागरी की वर्तनियाँ भी अलग तरह से लिखते हैं, जिससे पता चलता है कि वास्तव में वह शब्द अरबी या नस्तलीक़ में कैसे लिखे जाते हैं। महकता आंचल नामक मासिक पत्रिका में भी अकसर कुरआन, आयना जैसी वर्तनियाँ नज़र आती हैं। वैसे यह अनुवाद दिलचस्प लगा मुझे। कोई अरबी नवीस या अरब निवासी बता सकते हैं कि स्वता मतलब क्या होता है? शायद यह अरब स्वता नहीं, अरब्स वता है।

धर्ममंडल

७५ साल पहले बने संगठन धर्ममंडल के स्थल पर यह गीत। बाकी स्थल अंग्रेज़ी का निकला। अवधी में है गीत। अब हम होते हैं नौ दो ग्यारह।

6.12.07

केवल भक्ति

स्थल का शीर्षक यह बता देता है कि स्थल निर्माता किस इलाके के हैं - महाराष्ट्र/गुजरात में इ और ई की मात्राओं की उलट पुलट बहुत आम है, जैसे दीप्ति के बजाय दिप्ती - और बोलते भी कुछ कुछ वैसे ही हैं, तो ठीक है। केवल भक्ति पर मूषक फिराने से मनोरंजन तो होता ही है, जीवित अवस्था में परम मोक्ष पाने के नुस्खे आपको सीधे जळगांव से मिलेंगे। ऑडियो व्हीडियो कैसेट भी मिलेंगे। वैसे महाराष्ट्र के स्थलों की कुछ पहचान - १. संख्याएँ देवानगरी में २. इ और ई की मात्राओं की उलट पुलट (जिवित बनाम जीवित) ३. ळ का धड़ल्ले से प्रयोग ४. अंग्रेज़ी के शब्दों की विशिष्ट वर्तनी - जैसे वीडियो नहीं व्हीडियो ५. चन्द्र बिन्दु की अनुपस्थिति (कहा बनाम कहाँ) भाषा की विविधता ही कहेंगे इसे। बहरहाल यह सब मोह माया, नुक्ता चीनी को नौ दो ग्यारह मान के व्यक्त भावों पर ध्यान दें और ज्ञानचर्चा पढ़ें। केवल भक्ति

खाओ गगन, रहो मगन!

पर यह खाने वाला नहीं है, पढ़ने वाला है। वैसे गगन वनस्पति गायब कहाँ हो गया? [गायब या ग़ायब?] चन्द्रशेखर आज़ाद का इत्ता बड़ा काव्य संग्रह - बाप रे बाप। और ज़रूर हाइकु बाज़ों को यह विश्व का पहला भी पसंद आएगा। मगर सबसे बढ़िया चीज़ है बाल साहित्य। आज शाम को पढ़ता हूँ यह गगन।

5.12.07

हिन्दी वेबसाइट

जी हाँ, स्थल का नाम है हिन्दी वेबसाइट। यहाँ लिखा भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी का दोहा - या चौपाई, या सवैया या कवित्त ? मुझे फ़र्क नहीं पता - पसन्द आया -
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।
दिलचस्प बात यह है कि यहाँ एचटीएमएल और पेजमेकर सीखने के लेख भी हैं, ऐडसेंस का बेहिचक इस्तेमाल है, और एक दिलचस्प चिट्ठा भी है। बढ़िया काम है जी के ए जी। शायद वनस्पति आधारित चिकित्सा का भी एक विभाग बनाया जा सकता है।

4.12.07

गोकुल राजाराम - ऐडसेंस निर्माता

मेरे एक सहकर्मी ने खबर दी कि गोकुल राजाराम[अंग्रेज़ी] गूगल छोड़ रहे हैं। इस लेख से यह पता चला कि गोकुल ही गूगल के ऐडसेंस- ऐडवर्ड्स दल के नेता थे। दरअसल गोकुल जी के बारे में पहले भी अपने सहकर्मी सत्यप्रकाश जी के साथ चर्चा हुई थी, क्योंकि वह आईआईटी कानपुर में उनके तीन साल तक रूममेट थे। गोकुल १९९५ के आईआईटी कानपुर के कंप्यूटर साइंस[अंग्रेज़ी] के टॉपर थे। कंप्यूटर साइंस में भर्ती पाना तो वैसे ही कठिन है, वह भी कानपुर आईआईटी में, उसमें भी पहला नंबर आना - कोई मज़ाक नहीं है। मेरे सहकर्मी बताते हैं कि गोकुल की याददाश्त ऐसी थी जैसे कि चाचा चौधरी की - यानी कंप्यूटर से भी तेज़। पढ़ने की गति बहुत ही तेज़, और जो पढ़ते थे वह भी - चाहे उपन्यास ही हो - हमेशा के लिए याद। मेरे जैसा अगर कोई अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़ता है तो किताब खत्म होते होते कहानी तो याद रहती है पर पात्रों के नाम भूल जाते हैं। पर आप उनसे अभी भी पूछ सकते हैं कि कौन से उपन्यास में कौन से पात्र थे और क्या कहानी थी, वह बता देंगे। और सबसे बड़ी बात जो मेरे सहकर्मी उनके बारे में बताते हैं वह यह है कि उनमें ज़रा भी घमंड की भावना नहीं है। आमतौर अपने जैसी निपुणता वालों के साथ तक ही अपना मेलजोल रखते हैं। पर इनके साथ ऐसा कभी नहीं था। न कोई घमंड न कोई दंभ। सोचता हूँ, कोई आईआईटी में भर्ती होने के बाद भी नंबर वन रहने की तमन्ना रखे और उसे पूरा भी करे - कितना दृढ़ निश्चय चाहिए। गोकुल लगभग एक साल तक आईआईटी के समय दिन में केवल चार घंटा सोते थे ऐसा मेरे सहकर्मी बताते हैं। उन्होंने पहले से ही सोचा हुआ था कि अनुसंधान के बजाय व्यापार की ओर बढ़ेंगे, और वही किया - एमआईटी के स्लोन[अंग्रेज़ी] से एमबीए किया था, और फिर गूगल में भर्ती हुए। गूगल हर काम खुफ़िया तरीके से ही करता है, आज ही पता चला कि गूगल के ऐडसेंस के पीछे भी उन्हीं का हाथ है, जब उनके छोड़ने की खबर आई। गूगल के अन्दर भी उनकी काफ़ी धाक है, वह इस लेख की टिप्पणियों[अंग्रेज़ी] से पता चलता है। आमतौर पर मितभाषी गूगलियों ने भी काफ़ी टिप्पणियाँ की हैं। आज उनकी बदौलत गूगल तो इतनी ऊँचाई तक पहुँची ही है, कोई भी आम प्रकाशक आर्थिक रूप से स्वतन्त्र रहते हुए प्रकाशन करने की सोच सकता है, उसे बड़े स्थलों और कंपनियों पर निर्भर रहने या उनके द्वारा डकारे जाने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। स्वतन्त्र रूप से प्रकाशन करने के लिए प्रोत्साहित करने में गोकुल की बनाई ऐडसेंस का बहुत बड़ा हाथ है। हाशिये पर मौजूद भाषाएँ, विचार और संस्थाएँ भी इस आर्थिक संबल के जरिए अपनी बात उतनी ही दृढता से आगे रख सकती हैं जितनी मुख्यधारा के प्रकाशक, सशक्त भाषाओं और आंदोलनों के प्रकाशक। क्या गोकुल ने सोचा था कि ९५ में आईआईटी से निकलने के बाद वह एक ऐसी चीज़ बना देंगे जो पूरी दुनिया की नक्शा ही बदल देगी? मुझे तो लगता है कि ज़रूर सोचा होगा। बिना योजना के कोई कार्य पूरा नहीं होता और केवल योजना बनाने से सिर्फ़ शेखचिल्ली पैदा होते हैं। गोकुल ने योजना भी बनाई और उस पर क्रियान्वयन भी किया। इतना ही नहीं, ऐसा व्यक्तित्व कि कोई रूममेट आज भी - १३ साल बाद - उन्हें याद करे - यही कह सकते हैं कि धरती माता धन्य हुई ऐसे सपूत[अंग्रेज़ी] को पा के। मुझे विश्वास है कि अभी और भी आना बाकी है गोकुल की ओर से! जैसे सरकिट कहता है, अपुन के पास एक और बम है - ज़रूर गोकुल के पास और भी हैं - और हम सबके पास भी।

3.12.07

जगतहितकारिणी - ९८ साल पुरानी हिन्दी

नहीं, जगत हितकारनी है किताब का नाम। लेखक हैं श्री अनोपदास जी। १९०९ में छपी किताब जस की तस यहाँ उपलब्ध है। पहला पन्ना छवि प्रारूप में है, पर आगे के यूनिकोडित हैं, आखिरी तक। सामग्री तो पूरी नहीं पढ़ पाया पर अधिक सूद पर उधार लेने देने पर काफ़ी चर्चा है। भाषा की शैली से पता चलता है कि ९८ साल पुरानी हिन्दी कैसी थी। जगतहितकारिणी आज सुबह सुबह "पंजाब दा दुद्ध एकदम शुद्ध" पीते हुए सोच रहा था कि अनोपदास जी आज होते तो ज़रूर यह पूछते कि रेलवे के टिकट खरीदने के लिए अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी क्यों है - शायद हलचल जी बता पाएँ!

हिन्दी का एक और डिग

पहले एक हिन्दी के डिग की चर्चा हुई थी, पर लगता है वह डिग अभी गड्ढे खोद खोद कर उन्हीं में सो रहा है। आज एक और मिला, वह है हिन्दी पेपर। बढ़िया है। सारे कोने वेब-२ वाले गोल गोल हैं!