4.12.07
गोकुल राजाराम - ऐडसेंस निर्माता
मेरे एक सहकर्मी ने खबर दी कि गोकुल राजाराम[अंग्रेज़ी] गूगल छोड़ रहे हैं। इस लेख से यह पता चला कि गोकुल ही गूगल के ऐडसेंस- ऐडवर्ड्स दल के नेता थे। दरअसल गोकुल जी के बारे में पहले भी अपने सहकर्मी सत्यप्रकाश जी के साथ चर्चा हुई थी, क्योंकि वह आईआईटी कानपुर में उनके तीन साल तक रूममेट थे।
गोकुल १९९५ के आईआईटी कानपुर के कंप्यूटर साइंस[अंग्रेज़ी] के टॉपर थे। कंप्यूटर साइंस में भर्ती पाना तो वैसे ही कठिन है, वह भी कानपुर आईआईटी में, उसमें भी पहला नंबर आना - कोई मज़ाक नहीं है। मेरे सहकर्मी बताते हैं कि गोकुल की याददाश्त ऐसी थी जैसे कि चाचा चौधरी की - यानी कंप्यूटर से भी तेज़। पढ़ने की गति बहुत ही तेज़, और जो पढ़ते थे वह भी - चाहे उपन्यास ही हो - हमेशा के लिए याद। मेरे जैसा अगर कोई अंग्रेज़ी उपन्यास पढ़ता है तो किताब खत्म होते होते कहानी तो याद रहती है पर पात्रों के नाम भूल जाते हैं। पर आप उनसे अभी भी पूछ सकते हैं कि कौन से उपन्यास में कौन से पात्र थे और क्या कहानी थी, वह बता देंगे।
और सबसे बड़ी बात जो मेरे सहकर्मी उनके बारे में बताते हैं वह यह है कि उनमें ज़रा भी घमंड की भावना नहीं है। आमतौर अपने जैसी निपुणता वालों के साथ तक ही अपना मेलजोल रखते हैं। पर इनके साथ ऐसा कभी नहीं था। न कोई घमंड न कोई दंभ।
सोचता हूँ, कोई आईआईटी में भर्ती होने के बाद भी नंबर वन रहने की तमन्ना रखे और उसे पूरा भी करे - कितना दृढ़ निश्चय चाहिए। गोकुल लगभग एक साल तक आईआईटी के समय दिन में केवल चार घंटा सोते थे ऐसा मेरे सहकर्मी बताते हैं।
उन्होंने पहले से ही सोचा हुआ था कि अनुसंधान के बजाय व्यापार की ओर बढ़ेंगे, और वही किया - एमआईटी के स्लोन[अंग्रेज़ी] से एमबीए किया था, और फिर गूगल में भर्ती हुए।
गूगल हर काम खुफ़िया तरीके से ही करता है, आज ही पता चला कि गूगल के ऐडसेंस के पीछे भी उन्हीं का हाथ है, जब उनके छोड़ने की खबर आई। गूगल के अन्दर भी उनकी काफ़ी धाक है, वह इस लेख की टिप्पणियों[अंग्रेज़ी] से पता चलता है। आमतौर पर मितभाषी गूगलियों ने भी काफ़ी टिप्पणियाँ की हैं।
आज उनकी बदौलत गूगल तो इतनी ऊँचाई तक पहुँची ही है, कोई भी आम प्रकाशक आर्थिक रूप से स्वतन्त्र रहते हुए प्रकाशन करने की सोच सकता है, उसे बड़े स्थलों और कंपनियों पर निर्भर रहने या उनके द्वारा डकारे जाने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। स्वतन्त्र रूप से प्रकाशन करने के लिए प्रोत्साहित करने में गोकुल की बनाई ऐडसेंस का बहुत बड़ा हाथ है। हाशिये पर मौजूद भाषाएँ, विचार और संस्थाएँ भी इस आर्थिक संबल के जरिए अपनी बात उतनी ही दृढता से आगे रख सकती हैं जितनी मुख्यधारा के प्रकाशक, सशक्त भाषाओं और आंदोलनों के प्रकाशक।
क्या गोकुल ने सोचा था कि ९५ में आईआईटी से निकलने के बाद वह एक ऐसी चीज़ बना देंगे जो पूरी दुनिया की नक्शा ही बदल देगी? मुझे तो लगता है कि ज़रूर सोचा होगा। बिना योजना के कोई कार्य पूरा नहीं होता और केवल योजना बनाने से सिर्फ़ शेखचिल्ली पैदा होते हैं। गोकुल ने योजना भी बनाई और उस पर क्रियान्वयन भी किया।
इतना ही नहीं, ऐसा व्यक्तित्व कि कोई रूममेट आज भी - १३ साल बाद - उन्हें याद करे - यही कह सकते हैं कि धरती माता धन्य हुई ऐसे सपूत[अंग्रेज़ी] को पा के। मुझे विश्वास है कि अभी और भी आना बाकी है गोकुल की ओर से! जैसे सरकिट कहता है, अपुन के पास एक और बम है - ज़रूर गोकुल के पास और भी हैं - और हम सबके पास भी।
3 टिप्पणियां:
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गोकुल राजाराम के बारे में पठन काफ़ी इन्स्पायरिन्ग लगा। आज के दिन जब मैं जब निरुत्साहित महसूस कर रहा था तब और भी!
जवाब देंहटाएंवाकई प्रेरणादायी!!
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