3.12.07

जगतहितकारिणी - ९८ साल पुरानी हिन्दी

नहीं, जगत हितकारनी है किताब का नाम। लेखक हैं श्री अनोपदास जी। १९०९ में छपी किताब जस की तस यहाँ उपलब्ध है। पहला पन्ना छवि प्रारूप में है, पर आगे के यूनिकोडित हैं, आखिरी तक। सामग्री तो पूरी नहीं पढ़ पाया पर अधिक सूद पर उधार लेने देने पर काफ़ी चर्चा है। भाषा की शैली से पता चलता है कि ९८ साल पुरानी हिन्दी कैसी थी। जगतहितकारिणी आज सुबह सुबह "पंजाब दा दुद्ध एकदम शुद्ध" पीते हुए सोच रहा था कि अनोपदास जी आज होते तो ज़रूर यह पूछते कि रेलवे के टिकट खरीदने के लिए अंग्रेज़ी जानना ज़रूरी क्यों है - शायद हलचल जी बता पाएँ!

5 टिप्‍पणियां:

  1. आलोक जी, क्या शानदार किताब की जानकारी दी है। पढ़कर समाज और भाषा दोनों को समझने में मदद मिलेगी। शुक्रिया...

    जवाब देंहटाएं
  2. यह तो बहुत उपयोगी सकता है। हिन्दी का इतिहास, हिन्दी व्याकरण का इतिहास, हिन्दी की विकास-गाथा आदि लिखने वाले लोगों के लिये बहुत उपयोगी सामग्री है। उन्हे किसी संग्रहालय में नहीं जाना पड़ेगा।

    जवाब देंहटाएं
  3. शुक्रिया!! पढ़ा जाएगा इसे

    जवाब देंहटाएं
  4. अच्छा लिंक दिया आपने। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं

सभी टिप्पणियाँ ९-२-११ की टिप्पणी नीति के अधीन होंगी। टिप्पणियों को अन्यत्र पुनः प्रकाशित करने के पहले मूल लेखकों की अनुमति लेनी आवश्यक है।