23.9.05
ये इण्टर्नेट मेरे किस काम का?
मेरे कई मित्र और रिश्तेदार यह सवाल पूछते हैं, इसलिए यह लेख लिखा है।
भई पहले तो यह नाम ही बोलना बहुत कठिन है, इसलिए हम इसे जाल ही बुलाएँगे। जाल, यानी जैसे इन्द्रजाल।
तो आप पूछ रहे थे कि जाल है किस काम का?
इसमें तो शक नहीं कि बिना जाल के हमारी ज़िन्दगी भली भाँति चल रही है, या थी। आखिर 1995 में ही सार्वजनिक रूप से इसमें इतनी अधिक बढ़ोतरी आई। था तो ये काफ़ी पहले से ही।
तो पहले ये समझते हैं कि ये है क्या चीज़।
या हो सकता है कि आपको मालूम हो कि जाल क्या है, पर मैं आपको जाल को देखने समझने का एक अलग नज़रिया देता हूँ, मेरा नज़रिया। मैं पढ़ा हूँ केन्द्रीय विद्यालयों में। वहाँ पर हर तिमाही में (या चौमाही में? भूल ही गया हूँ!) एक
प्रोजेक्ट वर्क करना होता है, हरेक विषय के बारे में। तो मैंने अपने एक और मित्र के साथ एक बार चाँद के बारे
में प्रोजेक्ट बनाया। उसके लिए जानकारी लेने गया था डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी, जुड़ पुखड़ी, गुवाहाटी में। उन दिनों पिताजी गुवाहाटी में थे। वहाँ पर इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के ऍम वाली पोथी खोली और उसमें से टीपना शुरू किया। इंसाइक्लोपीडिया आप घर नहीं ले जा सकते हैं, इसलिए रोज स्कूल के बाद जा के टीपता था। और तैयार हो गया प्रोजेक्ट
वर्क।
इसी तरह एक बार मैंने कैंसर पर परियोजना की, उसके लिए ऍनसीईआरटी दिल्ली के पुस्तकालय में वही काम किया जो गौहाटी में किया। वह तो मेरा साथी विपुल ऍनसीईआरटी कैम्पस में रहता था तो काम बन गया, वरना मैं तो दिल्ली
में ऐसे किसी पुस्तकालय को नहीं जानता था जहाँ पर इंसाइक्लोपीडिया मिलती हो। स्कूल में भी नहीं थी।
फिर मैं गया काम करने सिलतारा, गुम्मिडिपुण्डी, मोटी खावडी। इन जगहों के नाम शायद ही आपने सुने हों, यदि
सुने हों तो आइए बतियाएँगे इनके बारे में। पर वो फिर कभी। यहाँ पर पुस्तकालय तो क्या मैगज़ीनों की दुकान तक
नहीं होती थी। हर इतवार को शहर जाता था, एकाध किताब खरीदता था (वह भी महँगी होती थीं इसलिए कम ही), एक फ़िल्म देखता था और खाना खा के वापस आता था। मैं सोचता हूँ, वहाँ के बच्चे अपने प्रोजेक्ट वर्क कैसे करते होंगे? आख़िर केन्द्रीय विद्यालय तो सभी जगह हैं।
चलिए, अब मुझे गुम्मिडीपुण्डी से जब लखनऊ जाना होता था तो मद्रास से ट्रेन मिलती थी। उसका टिकट लेने के लिए, पहले एक ट्रेन पकड़ के मद्रास सेंट्रल आता था, वहाँ दूसरी मंजिल पर टिकट काउण्टर था। अभी भी है। पहले एक लाइन में लगता था कि पता करें कौन से दिन की मिल रही है। जब वो पता चल जाता था तो टिकट लेने वाली लाइन में लगता था। पर लाइन इतनी लम्बी होती थी कि कभी कभी नम्बर आते आते रिज़र्वेशन खत्म। वहाँ क्लर्क को बोलो कि देख
के बताए कब की मिल रही है तो या तो वो बता देगा, या कहेगा कि इन्क्वाइरी यहाँ नहीं होती। तो हो गया काम तमाम।
फिर टिकट लेने के बाद ही छुट्टी माँग सकते हैं न। अग़र छुट्टी की मनाही हो गई या तारीख बदल दी गई तो फिर जा
के वही सब करो।
ये सब चीज़ें हमारे जीवन में आम हैं। इतनी आम कि अक्सर जब जसपाल भट्टी का उल्टा पुल्टा देखते हैं या पङ्कज
कपूर का ऑफ़िस ऑफ़िस देखते हैं तो कई बार तो हँसी ही नहीं आती, समझ नहीं आता कि इसमें चुटकुला क्या है,
आख़िर इतनी आदत जो पड़ गई है टेढ़े तरीके से काम करने की। जब मैं इन गाँवों में रहता था तो काम भी बहुत होता था, सुबह आठ से रात के 9-10 बजे तक। घर पर फ़ोन करने का मौका नहीं मिलता था। मिलता भी था थो हमेशा एक नज़र लाल रङ्ग के नम्बरों पर लगी रहती थी, कि कब सौ पार होगा और चोगा रखना होगा। और अग़र घर वाले
फ़ोन करना चाहें तो कर ही नहीं सकते, क्योंकि करेंगे तो कहाँ करेंगे?
अब आइए वापस जाल पर आते हैं। समझिए सारी दुनिया ने अपने घर या दुकान पर एक फ़ोन लगा रखा है, जिसमें उस घर या दुकान के बारे में जानकारी लगातार दोहराती जाती रहती हो। आप जैसे ही फ़ोन का नम्बर मिलाएँ, आवाज़ बोलने
लगे। बस आपको यह पता करना होगा कि क्या चीज़ पता करने के लिए कहाँ फ़ोन लगाना होगा। रेल की जानकारी के लिए
ये नम्बर, चाँद की जानकारी के लिए कुछ और, और कैसर के लिए कोई और।
कैसा रहेगा? ऍसटीडी बूथ में जाइए और पता कर लीजिए कि कौन सी तारीख का कौन सी क्लास का टिकट मिल रहा है। और अग़र घर पर फ़ोन हो तो और बढ़िया। घर में कोई वयोवृद्ध हो या बीमार हो तो वह भी यह सब तो पता कर सकता है, दूसरों पर आश्रित नहीं रहेगा।
अब मान लीजिए कि यही फ़ोन लगातार वही बात रट्टू तोते की तरह नहीं बताता है, बल्कि आपको विकल्प देता है, कि
कानपुर की गाड़ियों की जानकारी के लिए 1 दबाएँ, कलकत्ते के लिए 2, आदि। मतलब आपका समय और बचेगा।
और उसके भी ऊपर, समझिए कि आपको चुरू जाना है और चुरू की जानकारी नहीं है। तो आप फ़ोन वाले के लिए सन्देश
छोड़ सकें कि भइए, चुरू की जानकारी भी देना शुरू करो।
तो कैसा रहे?
इसी तरह समझिए कि मेरे घरवाले मुझसे जब भी बात करना चाहें, अपने नम्बर पर कुछ रिकॉर्ड कर के छोड़ दें। जब
मुझे समय मिले तो मैं वह नम्बर डायल करके उसे सुन लूँ, और जवाब भी रिकॉर्ड कर लूँ।
तो कैसा रहे?
आप कहेंगे कि आमने सामने बात करने से बढ़िया तो कुछ भी नहीं है।
हाँ, सो तो है। पर आप हमेशा तो ऐसा नहीं कर सकते हैं न। ऊपर के उदाहरणों में ही हमने देखा। एक इंसान एक समय में एक ही जगह रह सकता है, इसीलिए उसे एकदेशी कहते हैं।
तो इतना निश्चित है कि इस
विधि से आप पहले के मुकाबले अधिक लोगों से सम्पर्क में रह सकेंगे, जानकारी जल्दी प्राप्त कर सकेंगे और समय भी
बचाएँगे।
अब आप यहाँ पर फ़ोन के बजाय कम्प्यूटर का पर्दा रखें।
कम्प्यूटर की मदद से आप एक फ़ोन नम्बर मिलाएँगे, और फिर कम्प्यूटर के पर्दे पर बताएँगे कि आप को क्या
जानकारी चाहिए। कम्प्यूटर खोज कर बता देगा कि आपको जो चाहिए, वह कहाँ उपलब्ध है, और
वह जानकारी - लिखित, छवि ध्वनि या वीडियो के रूप में आपके सामने फ़ोन लाइन के जरिए पेश कर देगा।
चाँद और कैंसर के बारे में मैं दिल्ली में घर बैठे भी पता लगा सकता हूँ।
ट्रेनों के बारे में जानकारी मुझे घर बैठे मिल सकती है।
जो नई गाड़ियाँ या स्पेशल गाड़ियाँ चलती हैं, उनके बारे में भी पता लगा सकता हूँ, उनकी जानकारी तो टाइम टेबल में भी नहीं होती है।
और यह सब कुल छः सौ रुपए महीने, एक फ़ोन और लगभग बीस हज़ार की लागत के एक कम्प्यूटर की मदद से।
सोचिए, जो लोग जाल का रोज इस्तेमाल करते हैं, उनके पास कितनी जानकारी है। जानकारी न हो तो भी जानकारी सरलता से प्राप्त करने का कितना
अच्छा तरीका है।
यह आपकी रोज की दुनिया को कैसे बदल सकता है। मद्रास में बैठे आप हिन्दी का अखबार
पढ़ सकते हैं। कभी देखा है मद्रास में हिन्दी का अखबार?
एयर डेक्कन की एक रुपए वाली टिकट सुबह पाँच बजे अपने घर से बाहर निकले बिना बुक कर सकते हैं। बच्चों के लिए
अच्छे स्कूलों और कॉलेजों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते है।
इतना ही नहीं, इन सबके बारे में दूसरों से राय ले सकते हैं, आप जिन लोगों को जानते
तक नहीं उनसे मदद ले सकते हैं और उनकी मदद कर सकते हैं।
नई भाषा सीख सकते हैं, अङ्ग्रेज़ी, तमिल, आदि।
और भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
तो आपको पूछना चाहिए, कि जाल हमारे किस किस काम का है? यह नहीं कि जाल हमारे किस काम
का है?
आप अपने घर पर बनाए सामान को जाल पर सजा के (तस्वीरों की बदौलत) उन्हें बेच सकते हैं। आप पता कर सकते हैं कि आपके बच्चे को जो दवाई पिलाई जा रही है, उसके साइड इफ़ेक्ट क्या हैं। आपकी जायदाद को लेके जो कानूनी पचड़ा है, उसके बारे में कानून क्या कहता है? बिना किसी डॉक्टरी या वकालत की किताब खरीदे।
आप जाल पर फ़ोन नम्बर खोज सकते हैं। घर पर मोटी मोटी फ़ोन डायरेक्टरियाँ रखने
की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी हर साल और जगह घेरती हैं, और उनमें नए नम्बर तो मिलते भी नहीं हैं।
आप घरेलू सामानों के दाम पता कर सकते हैं, कौन से ब्राण्ड सस्ते हैं, कौन से मॉडल में क्या सुविधाएँ हैं।
अब तक आपको ये सब जानकारी अपने पड़ोसी, दफ़्तर वाले, और रिश्तेदार देते आए थे। अब
आप और अधिक स्रोतों से यह पता कर सकते हैं।
यदि आप अच्छा लिखते हैं, तो जाल पर अपने लेख भी लिख सकते
हैं।
पर आप यह सब करेगे कैसे? सब कुछ तो अङ्ग्रेज़ी में है। फ़ोन पर बात करने में तो हिन्दी की कोई मनाही नहीं
है। हिन्दी चैनल टीवी पर देखने की भी कोई मनाही नहीं है। उसी तरह जाल पर भी हिन्दी में सब कुछ करने में
कोई मनाही नहीं है। बस इसके बारे में लोगों को पता कम है।
और अग़र कम पता है तो और पता किया जा सकता है।
हाँ, आपके और बहुत सवाल होंगे। पूछिए।
4 टिप्पणियां:
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आलोक भाई, बहुत सुन्दर, सरल और सामान्य भाषा मे अपनी बात को समझाया है। वास्तव मे यह लेख विकीपीडिया के खजाने मे होना चाहिये, कुछ एक लिंक और डालेगे तो लेख की शोभा और बढ जायेगी।
जवाब देंहटाएंरेलवे की लाइनों ले लगना तो हमे भी याद है, बहुत दु:ख दायी हुआ करता था,इन्टरनैट के आने से ये आलम है कि कुछ भी चाहिये,बटन दबाया और सबकुछ हाजिर, बिल्कुल "अलादीन का चिराग" जैसा।
आशा है आपके आगामी लेख कम से कम इसी साइज के होंगे।
आलोक
जवाब देंहटाएंनज़रिया पसंद आया। बहुत काम आएगा यह नजरिया। नए अभिकल्प के लिए बधाईयाँ। ऐसा लगता है कि आप नए युग में आ गए हैं
पंकज
हम भी तारीफ करने की अनुमति चाहते हैं। कर ही देते हैं लगे हाथ।कौन इन्तजार करे अनुमति की!
जवाब देंहटाएं--> http://TElombre.book.fr ! ;-)
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