पिछले कुछ दिनों से चर्चा हो रही है, उर्दू से हिन्दी लिप्यन्तरण के बारे में। सोचिए अगर आप उर्दू के लेख देवनागरी में पढ़ सकें, तो कितना बढ़िया रहे? उसी तरह शाहमुखी(यानी वही नस्तलीक़) और गुरमुखी में लिखी पञ्जाबी को देवनागरी में पढ़ पाएँ तो कैसा रहे? मुझे तो लगता है कि बहुत बढ़िया रहेगा। उसी तरह सिन्धी के लेख भी।
अब मुझे नस्तलीक़ आती नहीं है, हालाँकि घर में एक किताब तो है उसे सीखने के लिए। उसके बाद भी, केवल वर्णमाला जानना काफ़ी नहीं है, क्योंकि संयुक्ताक्षर भी हैं।
पर यही सोच रहा हूँ, कि देवनागरी में पढ़ने लिखने वाले, अगर उर्दू के लेख भी पढ़ पाएँ, और देवनागरी में उन पर टिप्पणी भी कर पाएँ – जो कि छपें नस्तलीक़ में, तो कैसा रहे?
इस चर्चा की बदौलत, रमण कौल जी का यह लेख दुबारा पढ़ने का अवसर मिला। पहले भी पढ़ा था पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था। इस बार पढ़ा तो दूसरे नज़रिये से पढ़ा। पर रमण जी अन्ततः यही कहते हैं कि अगर उर्दू वास्तव में ढंग से पढ़नी हो तो नस्लीक़ सीखें, वही सबसे अच्छा तरीका है। बात है भी सही, क्योंकि हिन्दी पढ़ने के लिए भी तो हम यही कहते हैं न कि देवनागरी सीखो!
पर अगर हम हिन्दी और उर्दू को मूलतः एक ही भाषा मानें, जो कि है भी, तो लिपि का अलग होना बेमानी हो जाता है, अर्थात् अगर अपनी सुविधानुसार लोग अपनी मर्ज़ी की लिपि में उर्दू और हिन्दी दोनों को पढ़ सकें तो चीज़ बढ़िया रहेगी। जिसे नस्तलीक़ में लिखना हो नस्तलीक़ में लिखे, जिसे देवनागरी में लिखना हो देवनागरी में। और पढ़ना वाला भी अपनी मर्ज़ी की लिपि चुन सके।
हाँ संस्कृतनिष्ठ और फ़ारसी-अरबी निष्ठ शैली की वजह से दिक्कतें होंगी पर अन्ततः इससे दोनो "भाषाओं" की शब्दावली अधिक समृद्ध होगी।
आपको याद होगा पाकिस्तान में हुए क्रिकेट वर्ल्ड कप के पहले रन बढ़ाने के लिए कमेण्टेटर कभी "एक रन का इज़ाफ़ा" नहीं कहते थे, लेकिन अब यह भारत में भी रेडियो और टीवी पर आम हो गया है।
यही हाल "उर्दूभाषियों" का भी है। विनय ने इस पाकिस्तानी परम्परा के बारे में विस्तार से पहले लिखा है जो कि मुझे काफ़ी रोचक लगा।
पिछले कुछ दिनों उर्दू और पञ्जाबी के बारे में मोहल्ला पर लेख भी आए, वह भी दिलचस्प थे।
आश्चर्य की बात है कि जिस लिपि को मेरे चारों पितामह-मातामह पढ़ते लिखते थे, वह उसकी ठीक अगली पीढ़ी वाले कतई नहीं जानते। पता चलता है इससे कि कुछ भी उड़न छू हो सकता है, डेढ़ पीढ़ी के फ़ासले में।
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जयपुर विस्फोटों के ऊपर कई लेख लिखे गए, शायद किसी आतङ्की हमले पर हिन्दी में पहली बार इतने ज़्यादा लेख लिखे गए हैं। अब यह न कहिए कि लेख लिखने के अलावा कुछ किया क्या? वह सवाल अलग है। शायद, अगर विभाजन के दस्तावेज़ होते, लोग अपने पर बीती को कलमबद्ध करते, तो हमें यह अहसास तो होता कि वास्तव में क्या हुआ, क्यों हुआ, उसकी पुनरावृत्ति से कैसे बचें? आने वाली पीढ़ियों को यह जानना ज़रूरी होगा कि इस पीढ़ी ने जयपुर में हुए विस्फोटों पर क्या प्रतिक्रिया की थी। पर उसके लिए अपन को आपसी गाली गलौज में से थोड़ा समय निकालना पड़ेगा – मुश्किल ही लगता है!
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ऊपर दिए लेखों में से कुछ में विकिपीडिया की कुछ कड़िया हैं। पर हिन्दी वाले की नहीं, अङ्ग्रेज़ी वाले की। कारण शायद यही है कि वह लेख हिन्दी में मौजूद नहीं हैं, केवल अङ्ग्रेज़ी में हैं, लेकिन यह अपने हाथ में हैं, यह समझना ज़रूरी है।
पर जब तक इस पर काम न किया जाए तब तक यह सब राजीव गाँधी के हमें देखना है, हम देखेंगे, वाले भाषण जैसा ही है।
अब मैं होता हूँ नौ दो ग्यारह, नस्तलीक़ सीखने। और विकिपीडिया पर खाता खोल लिया है।
अच्छी रही यह बहुरँगी पोस्ट। जयपुर के बारे में कहूंगा - हिन्दी ब्लॉगर एक ही विषय पर बहुत टेरते हैं। और बहुत जल्दी भूल भी जाते हैं; भारतीय मीडिया की तरह।
जवाब देंहटाएंआप का लिखने का अंदाज पसन्द आया।
जवाब देंहटाएंअच्छा लिखा है
जवाब देंहटाएंकाश्मीरी भी नस्तालिक और देवनागरी दोनो में लिखी जाती है। कोंकणी, कन्नड, मलयालम आदि कई भाषाओं मे लिखी जाती है। लिपयनतरण औजार के बहुत से लाभ होंगे।
जवाब देंहटाएंलेख अच्छा लगा। मैं भी बहुत समय से यही सोच रही थी कि यदि उर्दू साहित्य देवनागरी में पढ़ने को उपलब्ध हो जाए तो हमारी भाषा समृद्ध होगी व अपने आसपास को समझने में हमें बहुत सहायता मिलेगी।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती