आज एक लेख पढ़ा जिससे लगा कि रोना धोना क्या हर भारतीय का कर्तव्य है? भाषाविद् महेंद्र जी का लेख इतना निराशावादी है कि लगता है भारत के तथाकथित अभिजात्य वर्ग ने यह युद्ध शुरू होने के पहले ही हार मान ली है। इस लेख में मुख्यतः तीन बातें कही गई हैं
- अंतर्जाल में हिंदी की सामग्री बहुत कम है
- नई पीढ़ी को हिंदी आती है पर देवनागरी नहीं
- हिंदी पढ़ने लिखने में तकनीकी समस्याएँ हैं
यह मानी हुई बात है कि अंग्रेज़ी में जाल पर सामग्री काफ़ी है, हिन्दी के मुकाबले। सो तो हैं, लेकिन इतना ही नहीं, किसी भी और भाषा के मुकाबले अंग्रेज़ी में जाल पर सामग्री काफ़ी ज़्यादा है। यहाँ बात अंग्रेज़ी बनाम हिन्दी की नहीं है, बल्कि अंतर्जाल में भाषाओं की विविधता की है। इसका कारण साफ़ है, क्योंकि अंतर्जाल पर किसी भी भाषा में सामग्री तैयार करने से किसी ने किसी को रोका नहीं है। सवाल यह है कि क्या आप अपने सामर्थ्य के अनुसार सामग्री पैदा कर रहे हैं? बगैर रोना धोना मचाए? अगर नहीं कर रहे हैं तो समस्या आपके साथ है, अंतर्जाल सबको बराबर मौका देता है।
लेखक कहते हैं कि उनकी पोती को हिंदी पढ़नी नहीं आती है। इसमें अंतर्जाल का कुछ दोष है क्या? केवल एक व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कह देना कि देवनागरी लिपि मर रही है, क्या उचित है? मुझे तो नहीं लगता, मैं कई लोगों को जानता हूँ जो अमरीका में ही पैदा हुए हैं पर बहुत अच्छी देवनागरी पढ़ लिख लेते हैं, क्योंकि उन्हें वहाँ भी ऐसा माहौल और माता पिता मिले। लेखक जिस नई पीढ़ी की बात कर रहे हैं, वह बस बड़े शहरों और मध्यम शहरों में अंग्रेज़ी भाषाई शालाओं में पढ़ने वालों की बात है या विदेश में रहने वाले भारतीयों की बात है। यह वह लोग हैं जिन्हें वैसे ही अंग्रेज़ी में काफ़ी महारत हासिल है। लेकिन हिंदी के प्रयोक्ता केवल उन्ही तक सीमित नहीं है। यह बात समझना बहुत ज़रूरी है।
तकनीकी समस्या हिंदी लिखने पढ़ने की - दिन प्रति दिन कम होती जा रही है। हाँ इतना मानता हूँ कि पाठशालाओं में देवनागरी टंकन - इंस्क्रिप्ट पढ़ाया जाए तो एक पूरी पीढ़ी तर सकती है। पाठशाला वालने न पढ़ाएँ तो आप घर पर पढ़ाएँ। आपको कोई रोक नहीं रहा है।
नौ दो ग्यारह होने से पहले यही कहना चाहता हूँ कि चाहें जितना भी भाषण दे लो, घड़ा बूँद बूँद से ही भरता है। बूँदें चाहिए। भाषण और रोना धोना नहीं।
सही कहा.. रोने से कुछ नहीं होगा.. ्जितना लिख सकते हो लिखो.. वरना अगले २०० साल भी हम वहीं होगें जहां आज है..
जवाब देंहटाएंरोना-धोना किये बिना मजा भी तो नहीं आता। रोने से आंखे खूबसूरत होती हैं! :)
जवाब देंहटाएंबात तो आपकी सही है आलोक भाई, लेकिन क्या कहें, अनूप जी की टिप्पणी ने सोचने पर मजबूर कर दिया है, ही ही ही!! :D
जवाब देंहटाएंवैसे ये महेन्द्र जी गलत नहीं कह गए? बोले देवनागरी का इतिहास 6000 साल पुराना है। मैंने तो यही पढ़ा है कि देवनागरी लिपी कोई 1200-1300 वर्ष पहले ही आई थी गुप्ता साम्राज्य के बाद और गुप्ता काल में प्रयोग होने वाली ब्राह्मी लिपी से प्रभावित थी। मौर्य काल में प्रयोग होने वाली ब्राह्मी लिपी मैंने देखी है, लिखित रूप में देवनागरी जैसी कहीं भी नहीं लगती तो देवनागरी को काहे 6000 साल पुराना बताया जाए, ब्राह्मी पाली आदि देवनागरी की पूर्वज अवश्य हैं परन्तु देवनागरी अपने आप में तो सिर्फ़ 1200-1300 वर्ष पुरानी लिपी ही है!
जवाब देंहटाएंab baat dewv naagri ki ho aur log aanko ki khubsurti ki baat kaarey to roman mae kament chalega naa alok
जवाब देंहटाएंbas itna hi likhna haen
kajraarey kajraarey ..... sae aagey bhi jahaan aur haen
Rachna
dewv naagri = dev nagri
जवाब देंहटाएंकई बार तो लगता है कि इनके साथ राग मिला कर रोने लगो, कम से कम इसी बहाने लोग ज्ञानी सम लेंगे. :)
जवाब देंहटाएंये 'गुरूजी' लोग केवल 'शिक्षा' देने में माहिर हैं। कर्म और उसके प्रभाव का इनको कोई ज्ञान नहीं है। ये मान बैठे हैं कि हिन्दी की भाग्य उसके 'ललाट' पर लिखी हुई है - उसे बदला नहीं जा सकता।
जवाब देंहटाएंइन्हें इतिहास का या तो ज्ञान नहीं है या उसका सम्यक उपयोग करना नहीं जानते। एक उत्साही सेनापति हारती हुई सेना में उत्साह फूंककर उसे जिता देता है। कर्म से ही रास्ता बनता है। हिन्दी को नेट पर स्थापित करने के लिये सैकड़ों लोग अपने-अपने तरह से काम कर रहे हैं। ये काम जितने सार्थक और पर्याप्त हैं, इसी से हिन्दीौर देवनागरी का भविष्य निर्धारित होगा, न कि यह कोई पहले से तय चीज है।
इसलिये अंधकार का रोना मत रोइये, हो सके तो एक दिया जलाइये; अंधकार मिटेगा।
अमित, इतिहास कितने भी साल पुराना हो, वह तो बात ही अलग है न। किसी भी भाषा का भविष्य उसके अतीत से उतना जुड़ा नहीं है जितना कि उसे अभी इस्तेमाल में लाने वालों के नज़रिए से जुड़ा है।
जवाब देंहटाएंनिराशावादी नज़रिए से भाषा का इस्तेमाल करने वाले पिटेंगे, सवाल हमेशा की तरह यह नहीं है कि हिन्दी और देवनागरी कहाँ जा रही है, बल्कि यह है कि हिन्दी और देवनागरी का इस्तेमाल करने वाले कहाँ जा रहे हैं।
हालाँकि अनुनाद जी सारे गुरुओं को अपने लपेटे में ले लिया है .....बावजूद उसके मै उनसे शत प्रतिशत सहमत हूँ !!
जवाब देंहटाएं.........इसलिये अंधकार का रोना मत रोइये, हो सके तो एक दिया जलाइये; अंधकार मिटेगा।
हम ठेले तो जा रहे हैं पर हिन्दी तो ठस हो बैठी है। जनता मोटीवेट ही न हो रही। और हिन्दी वाले हमें घास ही न डालते!
जवाब देंहटाएंसरकारी राजभाषा कार्यक्रमों में ऐसे चिरकुट अपनी झांकी जमा जाते हैं, और हम जैसों का कोई नाम लेवा नहीं। कोई नेट पर झांकता ही नहीं!
जो तथाकथित लम्बरदार बनते हैं हिन्दी के उनकी वर्तनी थर्डक्लास है और सम्प्रेषण उससे भी रद्दी।
किस हिन्दी प्रेम की बात करी जाये!
सरकारी राजभाषा कार्यक्रम
जवाब देंहटाएंगोली मारिए उन्हें।
हिन्दी वाले हमें घास ही नहीं डालते!
ये हैं कौन - हिन्दी वाले? किसके मैदान की घास चरने की इच्छा थी आपको?
किस हिन्दी प्रेम की बात करी जाय!
जनता के प्रेरित होने/न होने को नापने का आपका मानक क्या है? विस्तार से बताएँ!
बहुत खूब भाई
जवाब देंहटाएंjaal per hindi lagatar badh rahi hai.
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