गूगल के नए क्रोम ब्राउज़र के वर्तनी जाँचक के बारे में लिखने की सोच ही रहा था कि यह लेख दिखा जो नुक्तों को परे करने की हिमायत करता है।
पर पहले क्रोम के बारे में। मुझे इसमें यह बात बहुत बढ़िया लगी कि अगर मैं इसका इस्तेमाल करते हुए ज़ायज़ लिखता हूँ तो उसके नीचे लाल लकीर आ जाती है, और बदल के जायज़ कर देता हूँ तो लकीर गायब हो जाती है! नुक्ते सही जगह लगाने की इच्छा न रखते हुए भी इस सुहूलियत ने मुझे सही लिखने को बाध्य किया। पसंद आया। उल्टे कई संस्कृत के शब्द क्रोम को नहीं पता थे, उन पर लाल लकीर थी - पर शब्दकोश शायद धीरे धीरे बढ़े। आप लोगों के क्रोम या किसी अन्य वर्तनी जाँचक के कैसे अनुभव हैं जानना चाहूँगा।
बाकी रही नुक्तों की कहानी, तो जो चीज़ समझ नहीं आती उससे परे हो लो, ठीक है, पर मुझे लगता है कि यह सिर्फ़ एक छोटी सी बिंदी है इसलिए नज़रंदाज़ कर दें यह ठीक नहीं है। इस हिसाब से तो हम हर समय ठ के बजाय ट ही क्यों न लिखें, समझने वाले समझ ही जाएँगे, और लिखने वाले की स्याही भी बचेगी। आखिर तमिल में ट, ठ, तो क्या ड और ढ भी ट की तरह ही लिखे जाते हैं, लोग अपने हिसाब से समझ जाते हैं। इसके बारे में भी आपके विचार जानना चाहूँगा।
क्रोम से अभी तक हमारा नाता जुड़ नहीं पाया है, लेकिन यदि यह "सही नुक्ते की सुविधा" देता है तो यह अच्छा ही है, कम से कम कुछ और लोग हिन्दी को सही ढंग से लिखने का प्रयास तो करेंगे… अब लगता है कि क्रोम डाउनलोड करना ही पड़ेगा…
जवाब देंहटाएंहम क्या कहें? हम तो एक कदम आगे, ड़ेढ़ कदम पीछे वाले हैं। कई नुक्ते लगाते हैं। कई जानते ही नहीं।
जवाब देंहटाएंपर यह अवश्य विचार है कि उच्चारण के आधार पर (यथासम्भव) सही लिखा जाये।
आलोक जी,
जवाब देंहटाएंअसल में शब्दों के नीचे बिंदी लगाने में समस्यायें भी आ रही हैं। हिंदी के कृतिदेव यूनिकोड पर जब उसे लाते हैं तो कई शब्दों पर लगायी गयी बिंदी उसे विकृत रूप प्रदान कर देती है। खासतौर से वह शब्द जो ढ़ और ड़ से बनते हैं। इसलिये कुछ लोग उसे साफ सुथरा दिखाने के चक्कर में बिदी हटा लेते हैं। आपका लेख दिखा तो अच्छा लगा। भाषा साफ सुथरी होना चाहिये यह बात सही है पर कठिनाई हो तो कुछ शब्दों में बिदी से बचा जाये तो कोई बात नहीं।
दीपक भारतदीप
लगता है कि क्रोम डाउनलोड करना ही पड़ेगा…
जवाब देंहटाएंप्राइमरी का मास्टर का पीछा करें
अब मैं क्या कह सकता हूँ इस विषय में, मैं न ही ज्ञानी हूँ और न ही विद्वान। परन्तु यह अवश्य कहूँगा कि किसी भी भाषा को गलत तरीके से लिखने को सही ठहराना बच्चे बहलाने जैसा है। इसलिए मेरे अनुसार नुक्तों की कुटाई वाला वह लेख बिना किसी औचित्य का है। नुक्तों का बोलते हुए आभास नहीं होता यह कहना सरासर बेईमानी है, मिथ्या है, बच्चे बहलाना है। किसी अक्षर को नुक्ते के साथ बोलने और बिना नुक्ते के बोलने के अंतर को साफ़ पहचाना जा सकता है। जिस क्षेत्र में उर्दू बोलचाल की भाषा में है वे लोग सही कर लेते हैं और बाकी नहीं - यह बात भी बच्चे बहलाने जैसी ही है। यदि उर्दू प्रचलित नहीं है तो उसका प्रयोग कैसे कर पा रहे हैं? उस स्थिति में तो हिन्दी के समानार्थ शब्द आने चाहिए और उन्हीं का प्रयोग होना चाहिए!! ;)
जवाब देंहटाएंएक पुरानी चीनी कहावत है - खाली गिलास को ही भरा जा सकता है, भरे हुए गिलास को भरने का यदि प्रयत्न किया जाए तो पानी बाहर छलक जाता है।
यदि किसी को कंस्ट्रक्टिव क्रिटिसिस्म (constructive criticism) पसंद नहीं है तो अपने ब्लॉग पर सूचना टाँग देनी चाहिए कि कृपया त्रुटि गिनाने का प्रयत्न न किया जाए क्योंकि उनका स्वागत नहीं होगा। तो ऐसी स्थिति में पाठक सचेत रहेगा, उसका दिमाग थोड़े ही खराब है कि खामखा अपना समय बर्बाद कर त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने का प्रयत्न करेगा!!
नुक्ते हटाने की हिमायत की हिमाकत हम भी कर चुके हैं
जवाब देंहटाएंइसे भाषा वैज्ञानिक नजरिए से भी देखा जाना आवश्यक है...नुक्ते स्वर नहीं हैं वे बाकायदा स्वतंत्र व्यंजन है इस तरह भाषा पर बेपनाह नया बोझा डालते हैं तथा असाध्य बना देते हैं। उर्दू सिर्फ हिन्दी से ही क्यों ऐसी उम्मीद करती है...क्यों नहीं khan लिखते समय k के नीचे नुक्ते पर जोर दिया जाता।
भाषा पर बोझा वाली तो नई दलील सुनी। लिखने वाले पर बोझ की बात तो समझ आती है पर क्या उर्दू के बगैर हिंदी कुछ है? आप कह रहे हैं कि उर्दू सिर्फ़ हिंदी से ही ऐसी उम्मीद क्यों करती है, तो यह समझिए कि उर्दू और हिंदी में लिपि के अलावा बहुत कम फ़र्क है, बल्कि है ही नहीं।
जवाब देंहटाएंयही कारण है कि हिंदी में अंग्रेज़ी शब्द लिखने के समय कोई वर्तनी पर ज़ोर नहीं देता है, पर उर्दू के शब्दों - की बात अलग है।
नुक्ते न तो स्वर हैं न व्यंजन, ये व्यंजन परिवर्तक हैं।
मसिजीवी और ऐसे ही विचार वालों की दिक्कत यह हैं कि ये हिन्दी और हिन्दू को समानार्थी शब्द मानते हैं :)
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